पेरिस – अभी तक अंतरराष्ट्रीय जलवायु वार्ताओं में ऐसा कोई तरीका नहीं खोजा जा सका है जिससे दुनिया के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों को सफलतापूर्वक कम किया जा सके। 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल में कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जनों के लिए कोई कीमत निर्धारित करने के लिए व्यापार योग्य कोटा की प्रणाली का उपयोग करने का प्रयास किया गया था, लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका और कई उभरते देशों द्वारा इसमें शामिल होने से इनकार कर देने पर यह प्रयास लड़खड़ा गया।
2009 के कोपेनहेगन जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में प्रतिज्ञा और पुनरीक्षण प्रक्रिया शुरू की गई जिसमें देशों ने एकपक्षीय रूप से फैसला किया कि वे कितनी कटौती करेंगे। परिणामस्वरूप, अमेरिका और कई उभरती अर्थव्यवस्थाओं ने पहली बार उत्सर्जनों को कम करने के लिए प्रतिबद्धताएँ की। लेकिन इस प्रणाली में भी भारी खामियाँ हैं। इसमें विकासशील देशों में कटौतियों की गारंटी या पारंपरिक मुफ्त लाभ प्राप्तकर्ता की समस्या का हल नहीं मिलता है। दरअसल, कुछ देशों को इस बात के लिए प्रोत्साहन मिला होगा कि वे उससे कम करें जितना वे अन्यथा कर सकते हैं ताकि उनकी मोलभाव करने की स्थिति मजबूत हो सके।
दुनिया के नेता जब 30 नवंबर से 11 दिसंबर के बीच जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के लिए पेरिस में मिलेंगे, तो उन्हें एक प्रभावी समझौते को तय करने के लिए एक नया अवसर प्राप्त होगा। सरकारों को सामंजस्य से काम करने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए, यह आवश्यक है कि कार्बन की कीमत के निर्धारण की किसी ऐसी प्रणाली के लिए काम किया जाए जो सरल हो और पारदर्शी भी। हम एक ऐसे कार्बन "कीमत-और-छूट" तंत्र का प्रस्ताव कर रहे हैं जिसमें एक निश्चित सीमा से ऊपर के उत्सर्जनों पर कोई कीमत तय की जाए और यह परिभाषित किया जाए कि प्राप्त आय का उपयोग किस तरह किया जाना चाहिए।
पेरिस सम्मेलन से पहले किए गए अध्ययनों में यह सुझाया गया है कि अंतरराष्ट्रीय सहयोग से ग्रीन हाउस गैसों को तेजी से कम किया जा सकता है। इनमें स्थानीय प्रदूषण की कमी, ऊर्जा और खाद्य की अधिक से अधिक सुरक्षा, और तेजी से नवाचार सहित, जलवायु परिवर्तन पर त्वरित कार्रवाई करने से परोक्ष रूप से मिल सकनेवाले लाभों पर भी प्रकाश डाला गया है। कम कार्बनवाली अर्थव्यवस्था की दिशा में कार्रवाई में तेजी लाने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय समझौता सभी देशों पर लागू होना चाहिए; इसकी निगरानी, रिपोर्टिंग, और जाँच करने के लिए एक सामान्य और सतत प्रणाली सम्मिलित की जानी चाहिए; और वैश्विक स्तर पर भारी आर्थिक प्रोत्साहन प्रदान किए जाने चाहिए।
हमारा कीमत-और-छूट तंत्र फ्रांस की उस "बोनस/मैलस" योजना से प्रेरित है, जिसमें वाहन के कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जनों के आधार पर नई कारों के खरीदारों पर कर लगाया जाता है या उन्हें बोनस दिया जाता है। हमारी प्रणाली में, जिस देश की दुनिया भर में प्रति व्यक्ति औसत उत्सर्जनों की मात्रा एक निर्धारित सीमा से ऊपर होगी वह कार्बन डाइऑक्साइड के प्रत्येक टन (या इसके समतुल्य) पर एक निर्धारित राशि का भुगतान करेगा। औसत से कम उत्सर्जनों वाले देशों को कम प्रदूषण फैलाने के लिए मुआवजा दिया जाएगा।
इस प्रणाली से शुरू में प्रति व्यक्ति सबसे कम उत्सर्जनों वाले देशों को लाभ होगा जिसका अर्थ यह है कि अधिकतर निधियों का प्रवाह सबसे कम विकसित देशों की ओर होगा। इसके पूरी तरह से चालू हो जाने के बाद, कीमत-और-छूट तंत्र से सभी देशों को अपने प्रति व्यक्ति उत्सर्जनों को कम करने, और उसके फलस्वरूप भुगतानों और छूटों के बीच के अंतर को कम करने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा।
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आदर्श कार्बन कीमत समझौते के उद्देश्यों पर निर्भर करेगी। प्रति टन $1-2 की कीमत से $14-28 बिलियन की राशि प्राप्त होगी, जो विकासशील देशों में निगरानी, पुनरीक्षण, और जाँच की प्रक्रिया को लागू करने के लिए पर्याप्त होगी। कोपेनहेगन समझौते में अमीर देशों द्वारा अविकसित देशों को जलवायु परिवर्तन को कम करने और अनुकूलन में मदद करने के लिए 2020 के बाद प्रति वर्ष $100 बिलियन खर्च करने की प्रतिबद्धता शामिल थी। प्रति टन $7-$8 की दर से इस वादे को पूरा करने के लिए पर्याप्त आय प्राप्त होगी जिससे प्रति व्यक्ति कम उत्सर्जन वाले देशों को धन उपलब्ध किया जा सकेगा।
$100 बिलियन की इस राशि में से $60 बिलियन पश्चिमी देशों और जापान से प्राप्त होंगे, और $20 बिलियन से कुछ कम हाइड्रोकार्बन का निर्यात करने वाले देशों (विशेष रूप से रूस और सऊदी अरब) और उच्च विकास वाली एशियाई व्यवस्थाओं (चीन और कोरिया सहित) से प्राप्त होंगे। इस प्रकार, कीमत-और-छूट प्रणाली की शुरूआत होने से "सामान्य, लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारियों और संबंधित क्षमताओं" के सिद्धांत के अनुरूप निधियों को देशों के बीच पुनः वितरित किया जा सकेगा।
कीमत-और-छूट प्रणाली कारगर होगी और निष्पक्ष भी। दुनिया के हर नागरिक को ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन का समान अधिकार होगा, और हर देश को उत्सर्जनों को कम करने के लिए मार्जिन पर समान प्रोत्साहन प्राप्त होंगे।
ऐसी प्रणाली स्थापित करने में आनेवाली मुख्य बाधा दाता देशों की सरकारों को यह समझाने की होगी कि वे अपने कार्बन उत्सर्जनों की कीमत अदा करें। यह लागत उनकी अर्थव्यवस्थाओं के आकार की दृष्टि से मामूली होगी, और किसी भी सफल जलवायु परिवर्तन समझौते के लिए इसी तरह की प्रतिबद्धताओं की आवश्यकता होगी। यदि अमीर देश कार्बन के लिए इतनी मामूली कीमत का भुगतान करने के लिए सहमत नहीं हो पाएँगे, तो पेरिस की वार्ताओं को निश्चित रूप से विफल माना जाएगा।
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The geostrategic shock that has accompanied Donald Trump’s return to the White House is the functional equivalent of a full-blown crisis. It is likely to have a lasting impact on the US and Chinese economies, and the contagion is almost certain to spread throughout the world through cross-border trade and capital flows.
likens Donald Trump’s reversal of America’s global leadership role to a full-blown crisis, similar to COVID-19.
Jorge Heine
urges the Organization of American States to demonstrate leadership in Haiti, shows how small countries can implement a foreign policy based on active non-alignment, calls on China and Europe to diversify the global monetary system, and more.
US President Donald Trump’s dismantling of America’s foreign-aid program may be the wake-up call African leaders need. If necessity is the mother of invention, the end of USAID could galvanize African governments to confront their countries’ challenges head-on.
sees opportunities to promote local growth following a massive reduction in foreign aid.
पेरिस – अभी तक अंतरराष्ट्रीय जलवायु वार्ताओं में ऐसा कोई तरीका नहीं खोजा जा सका है जिससे दुनिया के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों को सफलतापूर्वक कम किया जा सके। 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल में कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जनों के लिए कोई कीमत निर्धारित करने के लिए व्यापार योग्य कोटा की प्रणाली का उपयोग करने का प्रयास किया गया था, लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका और कई उभरते देशों द्वारा इसमें शामिल होने से इनकार कर देने पर यह प्रयास लड़खड़ा गया।
2009 के कोपेनहेगन जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में प्रतिज्ञा और पुनरीक्षण प्रक्रिया शुरू की गई जिसमें देशों ने एकपक्षीय रूप से फैसला किया कि वे कितनी कटौती करेंगे। परिणामस्वरूप, अमेरिका और कई उभरती अर्थव्यवस्थाओं ने पहली बार उत्सर्जनों को कम करने के लिए प्रतिबद्धताएँ की। लेकिन इस प्रणाली में भी भारी खामियाँ हैं। इसमें विकासशील देशों में कटौतियों की गारंटी या पारंपरिक मुफ्त लाभ प्राप्तकर्ता की समस्या का हल नहीं मिलता है। दरअसल, कुछ देशों को इस बात के लिए प्रोत्साहन मिला होगा कि वे उससे कम करें जितना वे अन्यथा कर सकते हैं ताकि उनकी मोलभाव करने की स्थिति मजबूत हो सके।
दुनिया के नेता जब 30 नवंबर से 11 दिसंबर के बीच जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के लिए पेरिस में मिलेंगे, तो उन्हें एक प्रभावी समझौते को तय करने के लिए एक नया अवसर प्राप्त होगा। सरकारों को सामंजस्य से काम करने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए, यह आवश्यक है कि कार्बन की कीमत के निर्धारण की किसी ऐसी प्रणाली के लिए काम किया जाए जो सरल हो और पारदर्शी भी। हम एक ऐसे कार्बन "कीमत-और-छूट" तंत्र का प्रस्ताव कर रहे हैं जिसमें एक निश्चित सीमा से ऊपर के उत्सर्जनों पर कोई कीमत तय की जाए और यह परिभाषित किया जाए कि प्राप्त आय का उपयोग किस तरह किया जाना चाहिए।
पेरिस सम्मेलन से पहले किए गए अध्ययनों में यह सुझाया गया है कि अंतरराष्ट्रीय सहयोग से ग्रीन हाउस गैसों को तेजी से कम किया जा सकता है। इनमें स्थानीय प्रदूषण की कमी, ऊर्जा और खाद्य की अधिक से अधिक सुरक्षा, और तेजी से नवाचार सहित, जलवायु परिवर्तन पर त्वरित कार्रवाई करने से परोक्ष रूप से मिल सकनेवाले लाभों पर भी प्रकाश डाला गया है। कम कार्बनवाली अर्थव्यवस्था की दिशा में कार्रवाई में तेजी लाने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय समझौता सभी देशों पर लागू होना चाहिए; इसकी निगरानी, रिपोर्टिंग, और जाँच करने के लिए एक सामान्य और सतत प्रणाली सम्मिलित की जानी चाहिए; और वैश्विक स्तर पर भारी आर्थिक प्रोत्साहन प्रदान किए जाने चाहिए।
हमारा कीमत-और-छूट तंत्र फ्रांस की उस "बोनस/मैलस" योजना से प्रेरित है, जिसमें वाहन के कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जनों के आधार पर नई कारों के खरीदारों पर कर लगाया जाता है या उन्हें बोनस दिया जाता है। हमारी प्रणाली में, जिस देश की दुनिया भर में प्रति व्यक्ति औसत उत्सर्जनों की मात्रा एक निर्धारित सीमा से ऊपर होगी वह कार्बन डाइऑक्साइड के प्रत्येक टन (या इसके समतुल्य) पर एक निर्धारित राशि का भुगतान करेगा। औसत से कम उत्सर्जनों वाले देशों को कम प्रदूषण फैलाने के लिए मुआवजा दिया जाएगा।
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$100 बिलियन की इस राशि में से $60 बिलियन पश्चिमी देशों और जापान से प्राप्त होंगे, और $20 बिलियन से कुछ कम हाइड्रोकार्बन का निर्यात करने वाले देशों (विशेष रूप से रूस और सऊदी अरब) और उच्च विकास वाली एशियाई व्यवस्थाओं (चीन और कोरिया सहित) से प्राप्त होंगे। इस प्रकार, कीमत-और-छूट प्रणाली की शुरूआत होने से "सामान्य, लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारियों और संबंधित क्षमताओं" के सिद्धांत के अनुरूप निधियों को देशों के बीच पुनः वितरित किया जा सकेगा।
कीमत-और-छूट प्रणाली कारगर होगी और निष्पक्ष भी। दुनिया के हर नागरिक को ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन का समान अधिकार होगा, और हर देश को उत्सर्जनों को कम करने के लिए मार्जिन पर समान प्रोत्साहन प्राप्त होंगे।
ऐसी प्रणाली स्थापित करने में आनेवाली मुख्य बाधा दाता देशों की सरकारों को यह समझाने की होगी कि वे अपने कार्बन उत्सर्जनों की कीमत अदा करें। यह लागत उनकी अर्थव्यवस्थाओं के आकार की दृष्टि से मामूली होगी, और किसी भी सफल जलवायु परिवर्तन समझौते के लिए इसी तरह की प्रतिबद्धताओं की आवश्यकता होगी। यदि अमीर देश कार्बन के लिए इतनी मामूली कीमत का भुगतान करने के लिए सहमत नहीं हो पाएँगे, तो पेरिस की वार्ताओं को निश्चित रूप से विफल माना जाएगा।