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प्रतिभा पुनआर्गमन

दुबई. सन् 1968 में जब मैं युनाइटेड किंगडम के मॉन्स ऑफिसर कैडेट स्कूल में पढ़ रहा था तब मुझे अस्पताल जाने की जरूरत पड़ी. वहां पर मुझे एक डॉक्टर मिला जो धाराप्रवाह अरबी बोल रहा था. मुझे घोर आश्चर्य हुआ. बातचीत में मुझे पता चला कि वह यूके में नया था. इसलिए मैंने उससे जानना चाहा कि उसका वहां लंबे समय तक रुकने का इरादा था या वह जल्द ही घर लौट जाएगा. उसने अरबी की एक कहावत में जवाब दिया जिसका अर्थ हैः ‘मेरा घर वहीं है जहां मैं खाना खा सकता हूं’.

डॉक्टर के शब्द वर्षों तक मेरे जहन में गूंजते रहे. दरअसल वे उस विरोधाभास को रेखांकित करते हैं जो ‘घर’ के बारे में हमारी आदर्शवादी कल्पना और जीवन की कठोर सच्चाइयों के बीच विद्यमान है जिनके कारण प्रतिभाशाली लोग घर छोड़ देते हैं.

डॉक्टर ‘प्रतिभा पलायन’ का ठेठ उदाहरण था जिससे विकासशील देश दशकों से ग्रस्त हैं. ये देश अपने दुर्लभ संसाधनों का उपयोग कर डॉक्टर, इंजिनियर और वैज्ञानिक पैदा करते हैं इस उम्मीद में कि वे अपने देश को संपन्न बनाएंगे. लेकिन फिर वे निराश देखते रहते हैं कि वही डॉक्टर, इंजिनियर और वैज्ञानिक पश्चिम में जा बसते हैं और अपने साथ अपनी संभावनाओं से भरी प्रतिभा भी ले जाते हैं.

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