सिंगापुर – चीन और भारत एशिया की जनसंख्या और शहरीकरण के रुझानों का संचालन कर रहे हैं। 2010 मैकेन्ज़ी अध्ययन के अनुसार, 2005 और 2025 के बीच इस महाद्वीप की शहरी आबादी में होनेवाली वृद्धि में इन दोनों देशों का हिस्सा 62%, और दुनिया भर में होनेवाली ऐसी वृद्धि में 40% जितना अधिक होने की संभावना है।
इस तरह के आँकड़े शहरी आयोजना और विकास के प्रबंध की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं। लेकिन इन दोनों देशों के बीच महत्वपूर्ण अंतरों को समझना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। उनके शहरी विकास के तरीकों में अंतर के साथ-साथ पर्यावरण नीति के संबंध में उनके दृष्टिकोणों में अंतरों के कारण भारत की जनसंख्या की चुनौतियों के संबंध में कार्रवाई करना और भी अधिक कठिन होने की संभावना है।
भले ही चीन में 20% मानव आबादी वास करती है, लेकिन दो दशकों से अधिक समय के भीतर इसकी प्रजनन दर "प्रतिस्थापन" दर (जो वर्तमान जनसंख्या को बनाए रखने के लिए आवश्यक होती है) के स्तर की तुलना में कम रही है और इसके फलस्वरूप अगले दो दशकों के भीतर इसकी जनसंख्या वृद्धि दर ऋणात्मक हो जाने की संभावना है। परिणामस्वरूप, भारत दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बनने की ओर अग्रसर है, जहाँ जनसंख्या वृद्धि दर निकट भविष्य में धनात्मक बने रहने की संभावना है। अधिकतर अनुमानों के अनुसार 2022 तक भारत की जनसंख्या चीन की जनसंख्या से भी अधिक हो जाएगी।
वास्तव में, उम्मीद है कि अगले 35 वर्षों में भारत 400 मिलियन से अधिक शहरी निवासी जोड़ेगा (यह संख्या संयुक्त राज्य अमेरिका की पूरी आबादी से भी अधिक है), जबकि चीन केवल 292 मिलियन ही जोड़ेगा। पहली बार, बहुसंख्य भारतीय शहरों में रह रहे होंगे - यह ऐसे देश के लिए एक महत्वपूर्ण परिवर्तन है जिसकी ग्रामीण आबादी वर्तमान में कुल आबादी की दो-तिहाई है।
भारत के दो सबसे बड़े शहरी केंद्रों - दिल्ली और मुंबई - का वर्णन अक्सर उभरते वैश्विक महानगरों के रूप में किया जाता है। दिल्ली तो पहले से ही दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला शहर है, और दुनिया के सबसे बड़े शहर टोक्यो और इसके बीच अंतर 2030 तक लगभग पूरी तरह से समाप्त हो जाने की संभावना है।
जब इस स्तर पर होनेवाली जनसंख्या वृद्धि को तीव्र शहरीकरण के साथ जोड़ दिया जाता है, तो इससे जुड़े पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभाव नीति संबंधी भयंकर चुनौतियों का रूप धारण कर लेते हैं। 2014 में, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने यह निर्धारित किया कि दिल्ली में दुनिया की सबसे खराब वायु गुणवत्ता (महीन कणों के संकेद्रण के आधार पर) है, जबकि शीर्ष चार स्थानों में भारतीय शहरों का स्थान है और शीर्ष 18 स्थानों में 13 में भारतीय शहरों का स्थान है।
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चीन की लगातार - और अक्सर सही तौर पर - खराब पर्यावरण नीतियों के लिए आलोचना की जाती है। लेकिन, मैकेंज़ी के अनुसार, चीन तीव्र शहरीकरण के लिए योजना बनाने में भारत की तुलना में अधिक सक्रिय रहा है और उसने यह दर्शाया है कि पर्यावरण संबंधी चुनौतियों का सामना करने के लिए उसके पास अधिक क्षमता और संसाधन हैं। देश भर के नए शहरों की शहरी योजनाओं में ऐसे मुद्दों पर आरंभ में ही ध्यान दिया जाता है, और नदी तटों के हरित पट्टी क्षेत्रों और शहरी प्राकृतिक भंडारों को ऐसी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के साथ जोड़ा जाता है जिनके पर्यावरणीय लाभ होते हैं (उदाहरण के लिए, व्यापक जन-पारगमन नेटवर्क)।
इसके विपरीत, भारत के शहरों का बेतरतीब विकास हुआ है जिसमें कुल मिलाकर शहरी प्रणालियों के सुचारू रूप से कार्य करने पर लगभग बिल्कुल ध्यान नहीं दिया गया है। उदाहरण के लिए, देश के शहरी क्षेत्रों में अक्सर पर्याप्त क्षेत्रीय परिवहन नेटवर्क की कमी रहती है। खाली पड़े शहर के भीतर के जिलों और उपनगरीय परिधियों में अनौपचारिक बस्तियों के बड़े-बड़े निर्माण हो रहे हैं जिनसे पर्यावरण की स्थितियों, सार्वजनिक स्वास्थ्य, और निजी सुरक्षा पर बुरा असर पड़ता है। भूमि उपयोग के स्वरूपों में औद्योगिक और आवासीय जिले मिले-जुले रूप में होते हैं, जिससे असुरक्षित (और बढ़ती हुई) आबादियों पर अनेक दुष्प्रभाव पड़ते हैं।
चीन और भारत में शहरी विकास में अंतर न केवल नीति की दृष्टि से, बल्कि दोनों देशों की शासन शैलियों में भी साफ दिखाई देता है। चीन के नेता प्रदूषण नियंत्रण पर भारी जोर दे रहे हैं। बीजिंग में आयोजित होनेवाले 2022 के शीतकालीन ओलंपिक से पहले ही, अधिकारीगण आर्थिक विकास का पर्यावरण प्रबंध के साथ तालमेल बैठाने के लिए क्षेत्रीय रूप से एकीकृत योजना तैयार कर रहे हैं जिसमें विनिर्माण प्रक्रियाओं को हरित बनाना और ऊर्जा उत्पादन में "अतिरिक्त क्षमता" को हटाना शामिल है।
इस तरह के बहु क्षेत्राधिकार संबंधी प्रयासों के लिए भारी समन्वयन और स्थिर दृष्टि की आवश्यकता होती है जो चीन की व्यवस्थित शासन प्रणाली प्रदान करती है। इसके विपरीत, भारत में वायु प्रदूषण के प्रबंध में केंद्र सरकार की कोई भूमिका नहीं होती है क्योंकि इसकी जिम्मेदारी राज्य स्तर पर होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का प्रशासन जो कुछ भी करने का निर्णय लेता है, विभिन्न दलों के नियंत्रण वाली राज्य सरकारों द्वारा उनकी नीतियों का विरोध करने की संभावना हो सकती है, या यह संभावना हो सकती है कि वे उन पर पर्याप्त रूप से ध्यान न दें और संसाधन न लगाएँ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, "घर के अंदर के वायु प्रदूषण" (ठोस ईंधन के जलने) के परिणामस्वरूप प्रति वर्ष होने वाली 4.3 मिलियन मौतों में से लगभग एक-तिहाई (1.3 मिलियन) भारत में होती हैं। हाल ही की एक रिपोर्ट में यह बताया गया है कि अधिक कठोर पर्यावरण विनियमों से भारतीयों की जीवन प्रत्याशा में 3.2 वर्ष जुड़ जाएँगे। इस कल्याण संबंधी वास्तविक लाभ में आर्थिक लाभ भी शामिल होंगे। इसके परिणामस्वरूप दो बिलियन से अधिक "जीवन वर्ष" जुड़ जाने का अर्थ है बहुत अधिक मात्रा में मानव उत्पादकता, रचनात्मकता, और परिवारों और समाज के लिए अमूल्य योगदान। तीव्र शहरीकरण के प्रभावों पर पर्याप्त रूप से कार्रवाई न कर पाने के फलस्वरूप भारत इन लाभों से वंचित हो रहा है।
इस संबंध में एक सदाशयपूर्ण, अच्छी तरह से प्रचारित आधिकारिक घोषणा से भारत के नागरिकों और दुनिया को यह संकेत मिलेगा कि देश अपनी बढ़ती हुई आबादी को शहरी पर्यावरणीय क्षरण के जीवन को कम करने के प्रभावों से बचाना चाहता है। इससे भारत के शहरों में जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए एक रूपरेखा भी उपलब्ध होगी जिससे स्थानीय निवासियों को प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ही रूप से (विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करके) लाभ मिलेगा।
नई वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत के प्रतिस्पर्धात्मक लाभ सर्वविदित हैं। लेकिन परिवर्तनकारी सामाजिक प्रगति केवल तभी संभव होगी जब देश उन उपायों के बारे में कार्रवाई करने हेतु अधिक व्यापक प्रयास आरंभ करेगा जिन्हें काफी समय से आर्थिक विकास की अपरिहार्य संपार्श्विक क्षति के रूप में नकारा जाता रहा है।
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While scandals, culture wars, and threats to democracy dominate the headlines, the biggest issues in this super election year ultimately concern economic policies. After all, the rise of anti-democratic populist authoritarianism is itself the legacy of a misbegotten economic ideology.
considers what 40 years of anti-government, low-tax, deregulatory advocacy have wrought around the world.
Germany recently prohibited a Palestinian Congress from taking place in Berlin, arrested its Jewish supporters, and barred one of its organizers, Greece’s former finance minister, from entering the country. But the turn to repression is powerful evidence that the country’s pro-Israel political consensus is breaking down.
sees in his case an effort to enforce with repression a pro-Israel political consensus that is breaking down.
सिंगापुर – चीन और भारत एशिया की जनसंख्या और शहरीकरण के रुझानों का संचालन कर रहे हैं। 2010 मैकेन्ज़ी अध्ययन के अनुसार, 2005 और 2025 के बीच इस महाद्वीप की शहरी आबादी में होनेवाली वृद्धि में इन दोनों देशों का हिस्सा 62%, और दुनिया भर में होनेवाली ऐसी वृद्धि में 40% जितना अधिक होने की संभावना है।
इस तरह के आँकड़े शहरी आयोजना और विकास के प्रबंध की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं। लेकिन इन दोनों देशों के बीच महत्वपूर्ण अंतरों को समझना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। उनके शहरी विकास के तरीकों में अंतर के साथ-साथ पर्यावरण नीति के संबंध में उनके दृष्टिकोणों में अंतरों के कारण भारत की जनसंख्या की चुनौतियों के संबंध में कार्रवाई करना और भी अधिक कठिन होने की संभावना है।
भले ही चीन में 20% मानव आबादी वास करती है, लेकिन दो दशकों से अधिक समय के भीतर इसकी प्रजनन दर "प्रतिस्थापन" दर (जो वर्तमान जनसंख्या को बनाए रखने के लिए आवश्यक होती है) के स्तर की तुलना में कम रही है और इसके फलस्वरूप अगले दो दशकों के भीतर इसकी जनसंख्या वृद्धि दर ऋणात्मक हो जाने की संभावना है। परिणामस्वरूप, भारत दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बनने की ओर अग्रसर है, जहाँ जनसंख्या वृद्धि दर निकट भविष्य में धनात्मक बने रहने की संभावना है। अधिकतर अनुमानों के अनुसार 2022 तक भारत की जनसंख्या चीन की जनसंख्या से भी अधिक हो जाएगी।
वास्तव में, उम्मीद है कि अगले 35 वर्षों में भारत 400 मिलियन से अधिक शहरी निवासी जोड़ेगा (यह संख्या संयुक्त राज्य अमेरिका की पूरी आबादी से भी अधिक है), जबकि चीन केवल 292 मिलियन ही जोड़ेगा। पहली बार, बहुसंख्य भारतीय शहरों में रह रहे होंगे - यह ऐसे देश के लिए एक महत्वपूर्ण परिवर्तन है जिसकी ग्रामीण आबादी वर्तमान में कुल आबादी की दो-तिहाई है।
भारत के दो सबसे बड़े शहरी केंद्रों - दिल्ली और मुंबई - का वर्णन अक्सर उभरते वैश्विक महानगरों के रूप में किया जाता है। दिल्ली तो पहले से ही दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला शहर है, और दुनिया के सबसे बड़े शहर टोक्यो और इसके बीच अंतर 2030 तक लगभग पूरी तरह से समाप्त हो जाने की संभावना है।
जब इस स्तर पर होनेवाली जनसंख्या वृद्धि को तीव्र शहरीकरण के साथ जोड़ दिया जाता है, तो इससे जुड़े पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभाव नीति संबंधी भयंकर चुनौतियों का रूप धारण कर लेते हैं। 2014 में, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने यह निर्धारित किया कि दिल्ली में दुनिया की सबसे खराब वायु गुणवत्ता (महीन कणों के संकेद्रण के आधार पर) है, जबकि शीर्ष चार स्थानों में भारतीय शहरों का स्थान है और शीर्ष 18 स्थानों में 13 में भारतीय शहरों का स्थान है।
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इसके विपरीत, भारत के शहरों का बेतरतीब विकास हुआ है जिसमें कुल मिलाकर शहरी प्रणालियों के सुचारू रूप से कार्य करने पर लगभग बिल्कुल ध्यान नहीं दिया गया है। उदाहरण के लिए, देश के शहरी क्षेत्रों में अक्सर पर्याप्त क्षेत्रीय परिवहन नेटवर्क की कमी रहती है। खाली पड़े शहर के भीतर के जिलों और उपनगरीय परिधियों में अनौपचारिक बस्तियों के बड़े-बड़े निर्माण हो रहे हैं जिनसे पर्यावरण की स्थितियों, सार्वजनिक स्वास्थ्य, और निजी सुरक्षा पर बुरा असर पड़ता है। भूमि उपयोग के स्वरूपों में औद्योगिक और आवासीय जिले मिले-जुले रूप में होते हैं, जिससे असुरक्षित (और बढ़ती हुई) आबादियों पर अनेक दुष्प्रभाव पड़ते हैं।
चीन और भारत में शहरी विकास में अंतर न केवल नीति की दृष्टि से, बल्कि दोनों देशों की शासन शैलियों में भी साफ दिखाई देता है। चीन के नेता प्रदूषण नियंत्रण पर भारी जोर दे रहे हैं। बीजिंग में आयोजित होनेवाले 2022 के शीतकालीन ओलंपिक से पहले ही, अधिकारीगण आर्थिक विकास का पर्यावरण प्रबंध के साथ तालमेल बैठाने के लिए क्षेत्रीय रूप से एकीकृत योजना तैयार कर रहे हैं जिसमें विनिर्माण प्रक्रियाओं को हरित बनाना और ऊर्जा उत्पादन में "अतिरिक्त क्षमता" को हटाना शामिल है।
इस तरह के बहु क्षेत्राधिकार संबंधी प्रयासों के लिए भारी समन्वयन और स्थिर दृष्टि की आवश्यकता होती है जो चीन की व्यवस्थित शासन प्रणाली प्रदान करती है। इसके विपरीत, भारत में वायु प्रदूषण के प्रबंध में केंद्र सरकार की कोई भूमिका नहीं होती है क्योंकि इसकी जिम्मेदारी राज्य स्तर पर होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का प्रशासन जो कुछ भी करने का निर्णय लेता है, विभिन्न दलों के नियंत्रण वाली राज्य सरकारों द्वारा उनकी नीतियों का विरोध करने की संभावना हो सकती है, या यह संभावना हो सकती है कि वे उन पर पर्याप्त रूप से ध्यान न दें और संसाधन न लगाएँ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, "घर के अंदर के वायु प्रदूषण" (ठोस ईंधन के जलने) के परिणामस्वरूप प्रति वर्ष होने वाली 4.3 मिलियन मौतों में से लगभग एक-तिहाई (1.3 मिलियन) भारत में होती हैं। हाल ही की एक रिपोर्ट में यह बताया गया है कि अधिक कठोर पर्यावरण विनियमों से भारतीयों की जीवन प्रत्याशा में 3.2 वर्ष जुड़ जाएँगे। इस कल्याण संबंधी वास्तविक लाभ में आर्थिक लाभ भी शामिल होंगे। इसके परिणामस्वरूप दो बिलियन से अधिक "जीवन वर्ष" जुड़ जाने का अर्थ है बहुत अधिक मात्रा में मानव उत्पादकता, रचनात्मकता, और परिवारों और समाज के लिए अमूल्य योगदान। तीव्र शहरीकरण के प्रभावों पर पर्याप्त रूप से कार्रवाई न कर पाने के फलस्वरूप भारत इन लाभों से वंचित हो रहा है।
इस संबंध में एक सदाशयपूर्ण, अच्छी तरह से प्रचारित आधिकारिक घोषणा से भारत के नागरिकों और दुनिया को यह संकेत मिलेगा कि देश अपनी बढ़ती हुई आबादी को शहरी पर्यावरणीय क्षरण के जीवन को कम करने के प्रभावों से बचाना चाहता है। इससे भारत के शहरों में जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए एक रूपरेखा भी उपलब्ध होगी जिससे स्थानीय निवासियों को प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ही रूप से (विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करके) लाभ मिलेगा।
नई वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत के प्रतिस्पर्धात्मक लाभ सर्वविदित हैं। लेकिन परिवर्तनकारी सामाजिक प्रगति केवल तभी संभव होगी जब देश उन उपायों के बारे में कार्रवाई करने हेतु अधिक व्यापक प्रयास आरंभ करेगा जिन्हें काफी समय से आर्थिक विकास की अपरिहार्य संपार्श्विक क्षति के रूप में नकारा जाता रहा है।