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भारत की पुरानी पड़ चुकी दंड संहिता

नई दिल्ली – भारत में प्रत्यक्ष रूप से असंबंधित दिखाई देनेवाले अनेक विवादों में वास्तव में एक महत्वपूर्ण तत्व समान है: वे सभी उन दंडनीय अपराधों से संबंधित हैं जिन्हें उन्नीसवीं सदी के मध्य में भारत के ब्रिटिश साम्राज्य के शासकों द्वारा संहिताबद्ध किया गया था और जिनके बारे में भारत ने सिद्ध कर दिया है कि वह इन्हें निकाल फेंकने में असमर्थ या अनिच्छुक है।

ब्रिटिश सरकार द्वारा तैयार की गई भारतीय दंड संहिता की समस्यापरक विशेषताओं में "राजद्रोह" का निषेध, जिसे अस्पष्ट रूप से "कानून द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ असंतोष" का प्रचार करनेवाली अभिव्यक्ति या कार्यों के रूप में परिभाषित किया गया है; समलैंगिक कृत्यों का अपराधीकरण; और व्यभिचार के लिए असमान अभियोजन शामिल हैं। विशेष रूप से, इनमें से पहले दो, पिछले कुछ समय से जनता के भारी आक्रोश का स्रोत रहे हैं - और यह ठीक भी है। जैसा कि मैंने संसद की लोकसभा (जिसका मैं सदस्य हूँ) में इन प्रावधानों में संशोधन पेश करते समय तर्क दिया था कि अधिकारियों द्वारा इन प्रावधानों का ऐसे रूपों में आसानी से दुरुपयोग किया जा सकता है कि उनसे भारतीयों के संवैधानिक अधिकारों का हनन हो।

राजद्रोह पर विचार करें, जिसके खिलाफ ब्रिटिश नीतियों की किसी भी आलोचना को दबाने के लिए 1870 में जो निर्मम कानून बनाया गया था, उसके बारे में एक अंग्रेज़ ने साफ-साफ कहा था कि चाहे यह ऐसी आलोचना हो जिससे शांति का पूर्ण उल्लंघन न भी होता हो। परिणामस्वरूप, दंड संहिता की धारा 124A बनाई गई जिसके तहत ऐसे किसी भी व्यक्ति पर राजद्रोह का आरोप लगाया जा सकता है और उसे संभावित रूप से आजीवन कारावास की सज़ा दी जा सकती है जिसने सरकार के खिलाफ असंतोष को भड़काने के लिए "शब्दों, संकेतों, या हावभावों" का इस्तेमाल किया हो। दूसरे शब्दों में, भारतीयों के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है।

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