केप टाउन – आजकल, लोगों को वह काम करना जो नैतिक रूप से सही है और वह काम करना जो आर्थिक रूप से लाभकारी है, इन दोनों में से किसी एक का चयन करने के लिए अक्सर मजबूर होना पड़ता है। वास्तव में, उनके विकल्प कभी-कभी परस्पर असंबद्ध लगते हैं, जिससे यह निर्णय करना बेहद चुनौतीपूर्ण हो जाता है कि कौन सा रास्ता चुना जाए। तथापि, कभी-कभी, नैतिक औचित्य और आर्थिक हित दोनों इतने घुलेमिले होते हैं कि उनसे ऐसा अवसर प्रस्तुत होता है जिसे खोना नहीं चाहिए। इस आर्चबिशप और पूर्व वित्त मंत्री के दृष्टिकोण से जलवायु परिवर्तन के बारे में दुनिया की प्रतिक्रिया के साथ यही हो रहा है।
नैतिक अनिवार्यता निर्विवाद है क्योंकि जलवायु के प्रभाव - चरम मौसम, तापमान में परिवर्तन, और समुद्र के बढ़ते जल स्तरों सहित – दुनिया भर के उन गरीबों को सबसे अधिक तीव्रता से महसूस होते हैं, जो उन आर्थिक गतिविधियों से सबसे कम लाभान्वित होते हैं जिनके कारण ये जलवायु परिवर्तन होते हैं। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन के कारण भविष्य में गरीबी और असमानता में वृद्धि हो सकती है, जिसका अर्थ यह है कि यदि हम इसके बारे में ठीक समय पर कार्रवाई नहीं करते हैं तो हो सकता है कि इससे भावी पीढ़ियों के लिए अपने विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के अवसर कम हो जाएँ - या समाप्त भी हो जाएँ। जलवायु परिवर्तन को आज न्यूनतम करने के लिए प्रत्येक प्रयास करना ही सचमुच बिल्कुल सही काम है।
सौभाग्य से, जलवायु परिवर्तन के बारे में कार्रवाई करने के आर्थिक लाभ भी स्पष्ट हैं। आखिरकार, जलवायु परिवर्तन के साथ भारी आर्थिक लागतें - उदाहरण के लिए, अधिक बारंबारता और चरम मौसम की घटनाओं से संबंधित लागतें - जुड़ी हैं। इसके अलावा, सतत प्रौद्योगिकीय नवाचार पर आधारित “हरित” अर्थव्यवस्था का निर्माण करना, अगली पीढ़ी के लिए स्थायी विकास और रोज़गार सृजन के अवसर पैदा करने के नए साधन उपलब्ध करने का सबसे कुशल और कारगर तरीका है।
व्यक्ति, कंपनी, नगर निगम, और राष्ट्रीय स्तरों पर कार्रवाई किया जाना अत्यंत महत्वपूर्ण है। लेकिन वास्तविकता यह है कि जलवायु परिवर्तन वैश्विक समस्या है - और इस दृष्टि से इसके लिए वैश्विक समाधान की आवश्यकता है। सही काम को करने - और व्यापक आर्थिक लाभों को प्राप्त करने - के लिए दुनिया के पास सबसे महत्वपूर्ण साधन सार्वभौमिक जलवायु परिवर्तन समझौता है। यही कारण है कि दुनिया भर के नेताओं को इस साल दिसंबर में पेरिस में होनेवाले संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के रूप में कार्रवाई के लिए एकल वैश्विक ढाँचे का विकास करने के लिए मिलनेवाले अवसर का लाभ उठाना आवश्यक है।
वास्तव में, दुनिया भर के नेता पहले ही ऐसा करने का वचन दे चुके हैं। 2011 में दक्षिण अफ्रीका द्वारा शुरू और मेज़बानी किए गए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के फलस्वरूप यह समझौता किया गया कि जितना शीघ्र हो सके, इस वर्ष के समाप्त होने से पहले जलवायु परिवर्तन पर सार्वभौमिक कानूनी समझौता स्वीकार किया जाना चाहिए।
डरबन सम्मेलन के बाद से महत्वपूर्ण प्रगति की जा चुकी है। पिछले महीने, यूरोपीय संघ के सदस्यों, गैबॉन, मैक्सिको, नॉर्वे, रूस, स्विट्ज़रलैंड, और संयुक्त राज्य अमेरिका सहित - 30 से अधिक देशों ने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों को कम करने के लिए अपनी 2020 के बाद की योजनाएँ प्रस्तुत कीं। आने वाले सप्ताहों और महीनों में, इस प्रवृत्ति का बढ़ना जारी रहेगा क्योंकि आशा है कि ब्राज़ील, चीन और भारत जैसी प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्थाओं सहित अन्य देश भी अपनी प्रतिबद्धताएँ प्रस्तुत करेंगे।
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लेकिन अगर पेरिस की बैठक को नैतिक अनिवार्यता को पूरा करने और साथ ही जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के आर्थिक लाभों को प्राप्त करने की दृष्टि से सफल होना है, तो इसमें भाग लेने वाले प्रत्येक देश को 2020 में आरंभ होनेवाली अवधि के लिए अपना राष्ट्रीय अंशदान यथाशीघ्र दे देना चाहिए। इसके अलावा, अंतिम समझौते में अगले 50 वर्षों की अवधि में अकार्बनीकरण के लिए एक प्रभावी और महत्वाकांक्षी योजना को शामिल किया जाना चाहिए।
वास्तविकता यह है कि दुनिया की सरकारों द्वारा 2009 में की गई और 2010 में दुहराई गई इस वचनबद्धता को पूरा करने के लिए केवल अल्पावधि और दीर्घावधि प्रतिबद्धताएँ बिल्कुल अपर्याप्त हैं कि वैश्विक तापमानों को पूर्व-औद्योगिक युग के 2° सेल्सियस तक सीमित रखा जाएगा यह महत्वपूर्ण है कि उत्सर्जन कम करने की एक ऐसी क्रमिक दीर्घावधि रणनीति बनाई जाए और उसका पालन किया जाए जिससे पूंजी बाज़ारों को इस बात का स्पष्ट संकेत मिल सके कि सरकारें जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के बारे में गंभीर हैं।
उदाहरण के लिए, ऐसी रणनीति में कम कार्बन वाले समाधानों में निवेश करने के लिए प्रोत्साहन शामिल हो सकते हैं। चूंकि अगले 15 वर्षों में बुनियादी ढाँचे में वैश्विक रूप से लगभग $90 ट्रिलियन का निवेश किए जाने का अनुमान है, ऐसे किसी दृष्टिकोण का प्रभाव काफी अधिक हो सकता है – चाहे वह निर्णायक न भी हो।
जलवायु परिवर्तन के संबंध में कार्रवाई करने के लिए नैतिक और आर्थिक अनिवार्यताएँ इससे अधिक प्रबल नहीं हो सकती हैं। हालाँकि आगे का मार्ग कठिन होगा क्योंकि राह में कई नई और अप्रत्याशित चुनौतियाँ आएँगी, परंतु हम नेल्सन मंडेला की इस प्रसिद्ध उक्ति से प्रेरणा ले सकते हैं: "जब तक कार्य को कर नहीं लिया जाता वह हमेशा असंभव लगता है।" अधिक स्थायी, समृद्ध और सामाजिक दृष्टि से न्यायोचित भविष्य को प्राप्त करने के लिए हमारे सामने अभूतपूर्व अवसर उपलब्ध है। उस भविष्य को बनाने का कार्य अभी प्रारंभ किया जाना चाहिए।
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When comparing Ukraine’s situation in 2024 to Europe’s in 1941, Russia’s defeat seems entirely possible. But it will require the West, and the US in particular, to put aside domestic political squabbles and muster the political will to provide Ukraine with consistent and robust military and financial assistance.
compare Russia's full-scale invasion to World War II and see reason to hope – as long as aid keeps flowing.
Current debates about Israeli policy are rife with double standards, leading to absurd decisions like Germany’s recent cancellation of a pro-Palestinian gathering. By quashing legitimate speech and assembly, an Israel-aligned establishment risks inciting precisely the kind of anti-Semitism that it wants to prevent.
worries that the double standards applied on Israel’s behalf will lead to an anti-Semitic backlash.
केप टाउन – आजकल, लोगों को वह काम करना जो नैतिक रूप से सही है और वह काम करना जो आर्थिक रूप से लाभकारी है, इन दोनों में से किसी एक का चयन करने के लिए अक्सर मजबूर होना पड़ता है। वास्तव में, उनके विकल्प कभी-कभी परस्पर असंबद्ध लगते हैं, जिससे यह निर्णय करना बेहद चुनौतीपूर्ण हो जाता है कि कौन सा रास्ता चुना जाए। तथापि, कभी-कभी, नैतिक औचित्य और आर्थिक हित दोनों इतने घुलेमिले होते हैं कि उनसे ऐसा अवसर प्रस्तुत होता है जिसे खोना नहीं चाहिए। इस आर्चबिशप और पूर्व वित्त मंत्री के दृष्टिकोण से जलवायु परिवर्तन के बारे में दुनिया की प्रतिक्रिया के साथ यही हो रहा है।
नैतिक अनिवार्यता निर्विवाद है क्योंकि जलवायु के प्रभाव - चरम मौसम, तापमान में परिवर्तन, और समुद्र के बढ़ते जल स्तरों सहित – दुनिया भर के उन गरीबों को सबसे अधिक तीव्रता से महसूस होते हैं, जो उन आर्थिक गतिविधियों से सबसे कम लाभान्वित होते हैं जिनके कारण ये जलवायु परिवर्तन होते हैं। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन के कारण भविष्य में गरीबी और असमानता में वृद्धि हो सकती है, जिसका अर्थ यह है कि यदि हम इसके बारे में ठीक समय पर कार्रवाई नहीं करते हैं तो हो सकता है कि इससे भावी पीढ़ियों के लिए अपने विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के अवसर कम हो जाएँ - या समाप्त भी हो जाएँ। जलवायु परिवर्तन को आज न्यूनतम करने के लिए प्रत्येक प्रयास करना ही सचमुच बिल्कुल सही काम है।
सौभाग्य से, जलवायु परिवर्तन के बारे में कार्रवाई करने के आर्थिक लाभ भी स्पष्ट हैं। आखिरकार, जलवायु परिवर्तन के साथ भारी आर्थिक लागतें - उदाहरण के लिए, अधिक बारंबारता और चरम मौसम की घटनाओं से संबंधित लागतें - जुड़ी हैं। इसके अलावा, सतत प्रौद्योगिकीय नवाचार पर आधारित “हरित” अर्थव्यवस्था का निर्माण करना, अगली पीढ़ी के लिए स्थायी विकास और रोज़गार सृजन के अवसर पैदा करने के नए साधन उपलब्ध करने का सबसे कुशल और कारगर तरीका है।
व्यक्ति, कंपनी, नगर निगम, और राष्ट्रीय स्तरों पर कार्रवाई किया जाना अत्यंत महत्वपूर्ण है। लेकिन वास्तविकता यह है कि जलवायु परिवर्तन वैश्विक समस्या है - और इस दृष्टि से इसके लिए वैश्विक समाधान की आवश्यकता है। सही काम को करने - और व्यापक आर्थिक लाभों को प्राप्त करने - के लिए दुनिया के पास सबसे महत्वपूर्ण साधन सार्वभौमिक जलवायु परिवर्तन समझौता है। यही कारण है कि दुनिया भर के नेताओं को इस साल दिसंबर में पेरिस में होनेवाले संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के रूप में कार्रवाई के लिए एकल वैश्विक ढाँचे का विकास करने के लिए मिलनेवाले अवसर का लाभ उठाना आवश्यक है।
वास्तव में, दुनिया भर के नेता पहले ही ऐसा करने का वचन दे चुके हैं। 2011 में दक्षिण अफ्रीका द्वारा शुरू और मेज़बानी किए गए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के फलस्वरूप यह समझौता किया गया कि जितना शीघ्र हो सके, इस वर्ष के समाप्त होने से पहले जलवायु परिवर्तन पर सार्वभौमिक कानूनी समझौता स्वीकार किया जाना चाहिए।
डरबन सम्मेलन के बाद से महत्वपूर्ण प्रगति की जा चुकी है। पिछले महीने, यूरोपीय संघ के सदस्यों, गैबॉन, मैक्सिको, नॉर्वे, रूस, स्विट्ज़रलैंड, और संयुक्त राज्य अमेरिका सहित - 30 से अधिक देशों ने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों को कम करने के लिए अपनी 2020 के बाद की योजनाएँ प्रस्तुत कीं। आने वाले सप्ताहों और महीनों में, इस प्रवृत्ति का बढ़ना जारी रहेगा क्योंकि आशा है कि ब्राज़ील, चीन और भारत जैसी प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्थाओं सहित अन्य देश भी अपनी प्रतिबद्धताएँ प्रस्तुत करेंगे।
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वास्तविकता यह है कि दुनिया की सरकारों द्वारा 2009 में की गई और 2010 में दुहराई गई इस वचनबद्धता को पूरा करने के लिए केवल अल्पावधि और दीर्घावधि प्रतिबद्धताएँ बिल्कुल अपर्याप्त हैं कि वैश्विक तापमानों को पूर्व-औद्योगिक युग के 2° सेल्सियस तक सीमित रखा जाएगा यह महत्वपूर्ण है कि उत्सर्जन कम करने की एक ऐसी क्रमिक दीर्घावधि रणनीति बनाई जाए और उसका पालन किया जाए जिससे पूंजी बाज़ारों को इस बात का स्पष्ट संकेत मिल सके कि सरकारें जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के बारे में गंभीर हैं।
उदाहरण के लिए, ऐसी रणनीति में कम कार्बन वाले समाधानों में निवेश करने के लिए प्रोत्साहन शामिल हो सकते हैं। चूंकि अगले 15 वर्षों में बुनियादी ढाँचे में वैश्विक रूप से लगभग $90 ट्रिलियन का निवेश किए जाने का अनुमान है, ऐसे किसी दृष्टिकोण का प्रभाव काफी अधिक हो सकता है – चाहे वह निर्णायक न भी हो।
जलवायु परिवर्तन के संबंध में कार्रवाई करने के लिए नैतिक और आर्थिक अनिवार्यताएँ इससे अधिक प्रबल नहीं हो सकती हैं। हालाँकि आगे का मार्ग कठिन होगा क्योंकि राह में कई नई और अप्रत्याशित चुनौतियाँ आएँगी, परंतु हम नेल्सन मंडेला की इस प्रसिद्ध उक्ति से प्रेरणा ले सकते हैं: "जब तक कार्य को कर नहीं लिया जाता वह हमेशा असंभव लगता है।" अधिक स्थायी, समृद्ध और सामाजिक दृष्टि से न्यायोचित भविष्य को प्राप्त करने के लिए हमारे सामने अभूतपूर्व अवसर उपलब्ध है। उस भविष्य को बनाने का कार्य अभी प्रारंभ किया जाना चाहिए।