बर्लिन – फैक्टरी-शैली में पशुधन उत्पादन कृषि औद्योगिकीकरण को आगे बढ़ाने में अहम कारक है. इसका निरंतर विस्तार जलवायु परिवर्तन, जंगलों की कटाई, जैव विविधता ह्रास तथा मानव अधिकारों के हनन में अपना योगदान दे रहा है – केवल पश्चिम समाजों की सस्ते मांस के लिए अस्वास्थ्यकर भूख को शांत करने के लिए.
यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका 20वीं सदी में सबसे बड़े मांस उपभोक्ता थे. वहां हर साल एक औसत व्यक्ति 60-90 किलोग्राम (132-198 पौंड) मांस खा जाया करता था. यह मात्रा मनुष्यों की पोषण आवश्यकताओं से कहीं अधिक थी. हालांकि आज पश्चिमी खपत दरें स्थिर हो गई हैं और कई क्षेत्रों में कम भी हो रही हैं लेकिन कुल मिला कर अभी भी वे संसार के अधिकांश अन्य इलाकों से कहीं ऊंची बनी हुई हैं.
इसी दौरान उदयीमान अर्थव्यवस्थाओं – खासकर ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) कहे जाने वाले देशों में तेजी से बढ़ती मध्यम वर्गीय आबादी अपनी खान-पान की आदतों में बदलाव ला रही है और इस मामले में अमीर देशों के लोगों के साथ होड़ कर रही है. आने वाले दशकों में, जैसे-जैसे आमदनी बढ़ रही है वैसे-वैसे मांस व डेरी उत्पादों की मांग भी बढ़ेगी.
इस मांग को पूरा करने के लिए कृषि व्यवसाय में लगी दुनिया की फर्में अपने मांस उत्पादन को वर्तमान 30 करोड़ टन से सन् 2050 तक 48 करोड़ टन तक बढ़ाने का प्रयास करेंगी. इससे अनेक गंभीर सामाजिक चुनौतियां उत्पन्न होंगी और मूल्यवर्धन श्रृंखला की प्रत्येक अवस्था (पशु आहार आपूर्ति, उत्पादन, प्रसंस्करण और खुदरा बिक्री) में पारिस्थितिकीय दबाव भी पड़ेगा.
उद्योग-शैली के पशुधन उत्पादन में एक बड़ी समस्या यह है कि इससे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ता है. और ऐसा केवल इसलिए नहीं कि जुगाली करने वाले पशुओं की पाचन प्रक्रिया मीथेन उत्पन्न करती है. इन पशुओं के गोबर व मूत्र तथा उनके चारे के उत्पादन में प्रयुक्त रसायनिक खाद व कीटनाशक भारी मात्रा में नाइट्रोजन आक्साइड उत्पन्न करते हैं.
इसके अलावा, उद्योग मॉडल अपनाने का अर्थ है भूमि उपयोग में व्यापक परिवर्तन तथा जंगलों की कटाई जो चारा उत्पादन से आरंभ होती है. वर्तमान आंकडों के मुताबिक, कुल कृषि भूमि का लगभग एक-तिहाई चारा या पशु आहार उत्पादन में उपयोग होता है. इसमें यदि चराई समेत पशुधन उत्पादन के संपूर्ण भाग को शामिल कर किया जाए तो यह उपयोग करीब 70% तक हो जाता है.
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मांस खपत में विस्तार के साथ अकेले सोयाबीन का उत्पादन तकरीबन दुगुना हो जाएगा. इसका अर्थ है कि उसी अनुपात में अन्य लागतों, यथा जमीन, खाद, पीड़कनाशी तथा पानी का उपयोग भी बढ़ेगा. पशुओं को खिलाने के लिए खाद्य फसलों को छोड़कर चारे की खेती की जाएगी. इससे भोजन व जमीन की कीमतें बढ़ेंगी और लोगों पर अतिरिक्त दबाव पड़ेगा और संसार भर के गरीबों के लिए अपनी बुनियादी न्यूनतम पोषण आवश्यकताओं को पूरा करना भी अधिकाधिक कठिन होता जाएगा.
इससे भी बुरी बात ये है कि मिश्रित-भू उपयोग अथवा पशुपालन की देसी प्रणालियों को छोड़कर बड़े पैमाने पर उद्योग की तरह पशुपालन करने से विशेषकर विकासशील देशों में ग्रामीण आजीविकाएं नष्ट होती हैं. घुमंतू पशुपालक, छोटे उत्पादक और स्वतंत्र किसान कम खुदरा कीमतों से प्रतियोगिता नहीं कर सकते हैं. हालांकि ये कम कीमतें उद्योग की पर्यावरणीय और स्वास्थ्य की ऊंची कीमतों को न्यायोचित नहीं ठहराती हैं. और औद्योगिक पशुपालन प्रणाली अपने कम भत्तों तथा खराब स्वास्थ्य व सुरक्षा मानकों के साथ रोजगार का बेहतर विकल्प भी नहीं उपलब्ध कराती हैं.
इसके अलावा औद्योगिक पशुपालन व उत्पादन का सार्वजनिक स्वास्थ्य पर भी असर पड़ता है. मांस व डेरी उत्पादों की अत्याधिक ऊंची खपत पोषण-संबंधी स्वास्थ्य समस्याएं भी पैदा करती है – जैसे मोटापा और दिल व धमनियों की बीमारियां. और फिर सीमित स्थानों पर ढेर सारे पशुओं को रखने से छूत की अनेक बीमारियों का खतरा रहता है. बर्ड फ्लू जैसी कुछ बीमारियां इनसानों को भी अपना शिकार बना लेती हैं. इस खतरे को कम करने के लिए जो उपाय अपनाए जाते हैं, जैसे कि पशु आहार में रोगाणुओं को खत्म करने तथा पशुओं की वृद्धि के लिए एंटिबायोटिक की कम मात्रा मिलाई जाती है. इससे रोगाणुओं में इन एंटिबायोटिक दवाओं के लिए प्रतिरोधक क्षमता विकसित होती है जिससे सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए नया संकट पैदा हो रहा है.
स्वयं पशुओं को भी भयानक परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है. इसके लिए उद्योग द्वारा उचित पशु-कल्याण मानक अपनाने का विरोध करना ही जिम्मेदार है. आश्चर्य की बात है कि किस प्रकार इस उद्योग को इतने बड़े आकार में बढ़ने दिया गया. इसका उत्तर सामाजिक-राजनीतिक शक्ति में छिपा है जिससे औद्योगिक पशु-पालकों व उत्पादकों को अपनी सही सामाजिक व पर्यावरणीय लागतें दूसरों के मत्थे मढ़ने की छूट मिल गई. फिर ये लागतें मजदूरों और करदाताओं से वसूली जाती हैं.
जबकि सच्चाई यह है कि मांस व डेरी उत्पादों की वैश्विक मांग को पूरा करने के अन्य तरीके भी हैं. यूरोपीय संघ में कॉमन एग्रीकल्चर पॉलिसी (कैप) के केवल दो प्रमुख प्रावधानों को परिवर्तित करने की जरूरत है जिससे उत्पादन प्रणाली की विकृतियां बहुत कम हो जाएंगी. इन परिवर्तनों को लागू करने से यह साफ संकेत जाएगा कि यूरोपीय नीति निर्माता उपभोक्ताओं की इच्छाओं को गंभीरता से लेते हैं.
पहला परिवर्तन है जीनेटिक रूप से परिवर्तित पशु आहार के आयात पर प्रतिबंध लगाना और यह शर्त लगाना कि किसान अपने पशुओं के लिए कम से कम आधा पशु आहार अपने निजि खेतों में पैदा करें. पशु आहार प्राप्त करने के बारे में स्पष्ट नियम लागू करने से पोषण के क्षेत्र में व्याप्त अंतरराष्ट्रीय असंतुलन दूर होगा और मॉन्सेन्टो जैसी बहुराष्ट्रीय कृषि जैव प्रौद्योगिकी कंपनियों की ताकत कम होगी. और फिर, पशुशालाओं से निकले मल और गोबर की खाद को लंबी दूरियों तक ढोने की जरूरत नहीं रहेगी. इन्हें किसानों द्वारा अपने खेतों में ही पशु आहार उगाने के लिए इस्तेमाल कर लिया जाएगा.
दूसरे, पशु आहार व सिंचाई प्रणालियों में अनावश्यक रूप से एंटिबायोटिक मिलाने को भी रोका जाए. इससे किसान अपने बीमार पशुओं का पशु चिकित्सकों से इलाज कराने को बाध्य होंगे.
संयुक्त राज्य अमेरिका में फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) एंटिबायोटिकों के गैर-चिकित्सकीय उपयोग पर प्रतिबंध लगा सकता है. और यूएस डिपार्टमेंट ऑफ एग्रिकल्चर का फार्म बिल प्रोग्राम मुक्त-परिसर वाले पशुपालन कार्यों को और अधिक सहायता प्रदान कर सकता है. इससे मांस उत्पादन के अधिक निर्वहनीय तरीकों को बढ़ावा मिलेगा.
बेशक, ये कार्य मात्र कुछ महत्त्वपूर्ण उपाय हैं. जैसे-जैसे उभरती अर्थव्यवस्थाओं में मध्यम वर्ग बढ़ रहा है, यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि मांस उत्पादन के वर्तमान पश्चिमी मॉडल भविष्य के लिए कोई बेहतर खाका नहीं पेश करते हैं. अब वक्त आ गया है कि ऐसी प्रणाली बनाई जाए जो हमारी पारिस्थितिकीय, सामाजिक व नैतिक सीमाओं से बंधी हो.
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When comparing Ukraine’s situation in 2024 to Europe’s in 1941, Russia’s defeat seems entirely possible. But it will require the West, and the US in particular, to put aside domestic political squabbles and muster the political will to provide Ukraine with consistent and robust military and financial assistance.
compare Russia's full-scale invasion to World War II and see reason to hope – as long as aid keeps flowing.
Current debates about Israeli policy are rife with double standards, leading to absurd decisions like Germany’s recent cancellation of a pro-Palestinian gathering. By quashing legitimate speech and assembly, an Israel-aligned establishment risks inciting precisely the kind of anti-Semitism that it wants to prevent.
worries that the double standards applied on Israel’s behalf will lead to an anti-Semitic backlash.
बर्लिन – फैक्टरी-शैली में पशुधन उत्पादन कृषि औद्योगिकीकरण को आगे बढ़ाने में अहम कारक है. इसका निरंतर विस्तार जलवायु परिवर्तन, जंगलों की कटाई, जैव विविधता ह्रास तथा मानव अधिकारों के हनन में अपना योगदान दे रहा है – केवल पश्चिम समाजों की सस्ते मांस के लिए अस्वास्थ्यकर भूख को शांत करने के लिए.
यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका 20वीं सदी में सबसे बड़े मांस उपभोक्ता थे. वहां हर साल एक औसत व्यक्ति 60-90 किलोग्राम (132-198 पौंड) मांस खा जाया करता था. यह मात्रा मनुष्यों की पोषण आवश्यकताओं से कहीं अधिक थी. हालांकि आज पश्चिमी खपत दरें स्थिर हो गई हैं और कई क्षेत्रों में कम भी हो रही हैं लेकिन कुल मिला कर अभी भी वे संसार के अधिकांश अन्य इलाकों से कहीं ऊंची बनी हुई हैं.
इसी दौरान उदयीमान अर्थव्यवस्थाओं – खासकर ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) कहे जाने वाले देशों में तेजी से बढ़ती मध्यम वर्गीय आबादी अपनी खान-पान की आदतों में बदलाव ला रही है और इस मामले में अमीर देशों के लोगों के साथ होड़ कर रही है. आने वाले दशकों में, जैसे-जैसे आमदनी बढ़ रही है वैसे-वैसे मांस व डेरी उत्पादों की मांग भी बढ़ेगी.
इस मांग को पूरा करने के लिए कृषि व्यवसाय में लगी दुनिया की फर्में अपने मांस उत्पादन को वर्तमान 30 करोड़ टन से सन् 2050 तक 48 करोड़ टन तक बढ़ाने का प्रयास करेंगी. इससे अनेक गंभीर सामाजिक चुनौतियां उत्पन्न होंगी और मूल्यवर्धन श्रृंखला की प्रत्येक अवस्था (पशु आहार आपूर्ति, उत्पादन, प्रसंस्करण और खुदरा बिक्री) में पारिस्थितिकीय दबाव भी पड़ेगा.
उद्योग-शैली के पशुधन उत्पादन में एक बड़ी समस्या यह है कि इससे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ता है. और ऐसा केवल इसलिए नहीं कि जुगाली करने वाले पशुओं की पाचन प्रक्रिया मीथेन उत्पन्न करती है. इन पशुओं के गोबर व मूत्र तथा उनके चारे के उत्पादन में प्रयुक्त रसायनिक खाद व कीटनाशक भारी मात्रा में नाइट्रोजन आक्साइड उत्पन्न करते हैं.
इसके अलावा, उद्योग मॉडल अपनाने का अर्थ है भूमि उपयोग में व्यापक परिवर्तन तथा जंगलों की कटाई जो चारा उत्पादन से आरंभ होती है. वर्तमान आंकडों के मुताबिक, कुल कृषि भूमि का लगभग एक-तिहाई चारा या पशु आहार उत्पादन में उपयोग होता है. इसमें यदि चराई समेत पशुधन उत्पादन के संपूर्ण भाग को शामिल कर किया जाए तो यह उपयोग करीब 70% तक हो जाता है.
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मांस खपत में विस्तार के साथ अकेले सोयाबीन का उत्पादन तकरीबन दुगुना हो जाएगा. इसका अर्थ है कि उसी अनुपात में अन्य लागतों, यथा जमीन, खाद, पीड़कनाशी तथा पानी का उपयोग भी बढ़ेगा. पशुओं को खिलाने के लिए खाद्य फसलों को छोड़कर चारे की खेती की जाएगी. इससे भोजन व जमीन की कीमतें बढ़ेंगी और लोगों पर अतिरिक्त दबाव पड़ेगा और संसार भर के गरीबों के लिए अपनी बुनियादी न्यूनतम पोषण आवश्यकताओं को पूरा करना भी अधिकाधिक कठिन होता जाएगा.
इससे भी बुरी बात ये है कि मिश्रित-भू उपयोग अथवा पशुपालन की देसी प्रणालियों को छोड़कर बड़े पैमाने पर उद्योग की तरह पशुपालन करने से विशेषकर विकासशील देशों में ग्रामीण आजीविकाएं नष्ट होती हैं. घुमंतू पशुपालक, छोटे उत्पादक और स्वतंत्र किसान कम खुदरा कीमतों से प्रतियोगिता नहीं कर सकते हैं. हालांकि ये कम कीमतें उद्योग की पर्यावरणीय और स्वास्थ्य की ऊंची कीमतों को न्यायोचित नहीं ठहराती हैं. और औद्योगिक पशुपालन प्रणाली अपने कम भत्तों तथा खराब स्वास्थ्य व सुरक्षा मानकों के साथ रोजगार का बेहतर विकल्प भी नहीं उपलब्ध कराती हैं.
इसके अलावा औद्योगिक पशुपालन व उत्पादन का सार्वजनिक स्वास्थ्य पर भी असर पड़ता है. मांस व डेरी उत्पादों की अत्याधिक ऊंची खपत पोषण-संबंधी स्वास्थ्य समस्याएं भी पैदा करती है – जैसे मोटापा और दिल व धमनियों की बीमारियां. और फिर सीमित स्थानों पर ढेर सारे पशुओं को रखने से छूत की अनेक बीमारियों का खतरा रहता है. बर्ड फ्लू जैसी कुछ बीमारियां इनसानों को भी अपना शिकार बना लेती हैं. इस खतरे को कम करने के लिए जो उपाय अपनाए जाते हैं, जैसे कि पशु आहार में रोगाणुओं को खत्म करने तथा पशुओं की वृद्धि के लिए एंटिबायोटिक की कम मात्रा मिलाई जाती है. इससे रोगाणुओं में इन एंटिबायोटिक दवाओं के लिए प्रतिरोधक क्षमता विकसित होती है जिससे सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए नया संकट पैदा हो रहा है.
स्वयं पशुओं को भी भयानक परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है. इसके लिए उद्योग द्वारा उचित पशु-कल्याण मानक अपनाने का विरोध करना ही जिम्मेदार है. आश्चर्य की बात है कि किस प्रकार इस उद्योग को इतने बड़े आकार में बढ़ने दिया गया. इसका उत्तर सामाजिक-राजनीतिक शक्ति में छिपा है जिससे औद्योगिक पशु-पालकों व उत्पादकों को अपनी सही सामाजिक व पर्यावरणीय लागतें दूसरों के मत्थे मढ़ने की छूट मिल गई. फिर ये लागतें मजदूरों और करदाताओं से वसूली जाती हैं.
जबकि सच्चाई यह है कि मांस व डेरी उत्पादों की वैश्विक मांग को पूरा करने के अन्य तरीके भी हैं. यूरोपीय संघ में कॉमन एग्रीकल्चर पॉलिसी (कैप) के केवल दो प्रमुख प्रावधानों को परिवर्तित करने की जरूरत है जिससे उत्पादन प्रणाली की विकृतियां बहुत कम हो जाएंगी. इन परिवर्तनों को लागू करने से यह साफ संकेत जाएगा कि यूरोपीय नीति निर्माता उपभोक्ताओं की इच्छाओं को गंभीरता से लेते हैं.
पहला परिवर्तन है जीनेटिक रूप से परिवर्तित पशु आहार के आयात पर प्रतिबंध लगाना और यह शर्त लगाना कि किसान अपने पशुओं के लिए कम से कम आधा पशु आहार अपने निजि खेतों में पैदा करें. पशु आहार प्राप्त करने के बारे में स्पष्ट नियम लागू करने से पोषण के क्षेत्र में व्याप्त अंतरराष्ट्रीय असंतुलन दूर होगा और मॉन्सेन्टो जैसी बहुराष्ट्रीय कृषि जैव प्रौद्योगिकी कंपनियों की ताकत कम होगी. और फिर, पशुशालाओं से निकले मल और गोबर की खाद को लंबी दूरियों तक ढोने की जरूरत नहीं रहेगी. इन्हें किसानों द्वारा अपने खेतों में ही पशु आहार उगाने के लिए इस्तेमाल कर लिया जाएगा.
दूसरे, पशु आहार व सिंचाई प्रणालियों में अनावश्यक रूप से एंटिबायोटिक मिलाने को भी रोका जाए. इससे किसान अपने बीमार पशुओं का पशु चिकित्सकों से इलाज कराने को बाध्य होंगे.
संयुक्त राज्य अमेरिका में फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) एंटिबायोटिकों के गैर-चिकित्सकीय उपयोग पर प्रतिबंध लगा सकता है. और यूएस डिपार्टमेंट ऑफ एग्रिकल्चर का फार्म बिल प्रोग्राम मुक्त-परिसर वाले पशुपालन कार्यों को और अधिक सहायता प्रदान कर सकता है. इससे मांस उत्पादन के अधिक निर्वहनीय तरीकों को बढ़ावा मिलेगा.
बेशक, ये कार्य मात्र कुछ महत्त्वपूर्ण उपाय हैं. जैसे-जैसे उभरती अर्थव्यवस्थाओं में मध्यम वर्ग बढ़ रहा है, यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि मांस उत्पादन के वर्तमान पश्चिमी मॉडल भविष्य के लिए कोई बेहतर खाका नहीं पेश करते हैं. अब वक्त आ गया है कि ऐसी प्रणाली बनाई जाए जो हमारी पारिस्थितिकीय, सामाजिक व नैतिक सीमाओं से बंधी हो.